सोमवार, 31 जुलाई 2017

कालजयी साहित्यकार - प्रेमचंद


प्रेमचंद की गणना विश्‍व के महान साहित्यकारों में की जाती है । केवल भारतीय ही नहीं बल्कि पूरे विश्‍व साहित्य में उनका नाम बड़े आदर-सम्मन के साथ लिया जाता है ।  तुलसी के बाद वे एकमात्र लेखक हैं जिन्हें भारत के साथ ही साथ विश्‍व में भी सबसे अधिक पढ़ा जाता है । प्रेमचंद जी हिंदी भाषा और साहित्य के सच्चे प्रतिनिधि, उपासक और पोषक हैं। उनके साहित्य में भारतीय आत्मा बोलती है । वे भारतीय साहित्य में किसान-जीवन को अभिव्यक्ति देने वाले सर्वश्रेष्ठ स्रष्टा हैं । उनकी तुलना गोर्की से की जाती है । उन्होंने अपनी लेखनी के महान बल से जनजीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने का प्रयास किया है । हिंदी और उर्दू कथा साहित्य को समान रूप से समृद्ध करनेवाले प्रेमचंद जी ने हिंदी और उर्दू को एक-दूसरे के अधिक निकट लाने के लिए भगीरथ प्रयत्न किए हैं । उर्दू में दिए योगदान के कारण आज उन्हें पाकिस्तान के पाठ्यक्रम में प्रथम स्थान दिया है । हिंदी के तो वे साहित्य सम्राट हैं ।
प्रेमचंद जी का जन्म 31 जुलाई 1880 को लमही नामक गाँव में हुआ । उनके पिता अजायब लाल डाकमुंशी थे । उनकी माँ आनंदीदेवी सुंदर, सुशील और सुघड़ थीं । प्रेमचंद जी का कुल फटेहाल और कायस्थों का कुल था । "प्रेमचंद नटखट और खिलाड़ी बालक थे और खेतों से शाक-सब्ज़ी और पेड़ों से फल चुराने में वे दक्ष थे ।"1 उनका बचपन गाँव में बीता । गुड़ से उन्हें बहुत प्रेम था और मिठाई उन्हें बहुत पसंद थी । गिल्ली-डंडा और पतंगे उड़ाना उनके प्रिय खेल थे । बचपन में उनकी शिक्षा-दीक्षा लमही में हुई । इसके पश्चात् अनेक प्रतिकूल परिस्थितियों से उन्हें जूझना पड़ा ।
पहली पत्नी से कोई मेल न होने से प्रेमचंद जी की नहीं बनी, उनका यह रिश्ता टूट गया। उनका दूसरा विवाह शिवरानी देवी से हुआ । शिवरानी देवी बाल विधवा थीं । वे सुशील और स्वाभिमानी थीं । प्रेमचंद को उनपर गर्व था । शिवरानी देवी एक दबंग महिला थीं। वे सच्चे अर्थों में सहधर्मिणी सिद्ध हुई । प्रेमचंद मानते थे कि अपनी उन्नति में पत्नी का महत्त्वपूर्ण स्थान है । इस बारे में वे कहते हैं कि "अगर पहले से तुम्हारे साथ मेरा विवाह होता तो मेरा जीवन इससे आगे होता ।"2
प्रेमचंद का जीवन सपाट, समतल मैदान था ।  वे गोरे-चिट्टे, लंबे और सुंदर व्यक्ति थे। उनकी मूँछें बड़ी-बड़ी घनी और भूरी थीं । साफ़ा पहनने पर वे राजकुमार जैसे लगते थे । लेकिन वे सीधे-साधे और भोले व्यक्ति थे । वे सच्चे पृथ्वी पुत्र थे । शरीर और मन से वे किसान लगते थे । उनका स्वभाव धर्म निरपेक्ष था । उनका चिंतन क्रांतिकारी था । वे ख़ूब खुलकर हँसते थे ।
प्रेमचंद उनका साहित्यिक नाम है । उनका अपना नाम धनपत राय था । जब उन्होंने अँग्रेज़ी सरकार की नौकरी करते हुए कहानी लेखन आरंभ किया तो नवाब राय नाम अपनाया। लेकिन सरकार की ओर से उनका पहला कहानी संग्रह 'सोजे वतन' ज़ब्त करने पर उन्हें नवाब राय नाम छोड़ना पड़ा । बाद में 'जमाना' के संपादक दयाराम निगम के सुझाव पर उन्होंने प्रेमचंद नाम अपनाया । दिसंबर 1910 में 'जमाना' में प्रकाशित 'बड़े घर की बेटी' उनकी पहली कहानी थी जो प्रेमचंद के नाम से छपी थी । फिर तो सारा लेखन ही प्रेमचंद के नाम से शुरू हुआ ।
प्रेमचंद बहुमुखी प्रतिभासंपन्न साहित्यकार थे । उनकी रचना दृष्टि विभिन्न रूपों में प्रकट हुई है । उपन्यास, कहानी, नाटक, निबंध, समीक्षा, लेख, संपादकीय और संस्मरण आदि गद्य विधाओं में उन्होंने साहित्य सृजन किया है । प्रेमचंद जी के साहित्यिक जीवन का श्रीगणेश उर्दू से हुआ था। उनकी पहली रचना एक प्रहसन थी । अपने मामा के चमारिन से प्रेम-प्रसंग पर आधारित यह नाटक तेरह वर्ष की आयु में लिखा गया था । उसे पढ़कर मामा इतने क्रुद्ध हुए कि न केवल घर छोड़कर गए, बल्कि यह रचना अग्नि देवता को भेंट कर गए । इसके बाद प्रेमचंद की लेखनी त्वरित गति से सक्रिय हो गई । उनका पहला उर्दू उपन्यास 'असरारे मआबिद' उर्फ़ 'देवस्थान रहस्य' का प्रकाशन साप्ताहिक 'आवाज़ ए खल्क' में धारावाहिक के रूप में हुआ था । 'रंगभूमि' तक के सभी उपन्यास उन्होंने पहले उर्दू में लिखे थे, जो बाद में हिंदी में अनूदित या रूपांतरित हुए ।
प्रेमचंद को दुनिया कथाकार के रूप में जानती है । हिंदी कथा साहित्य के क्षेत्र में प्रेमचंद युग प्रवर्तक हैं । श्री. एहतेशाम हुसैन उन्हें "हिंदी-उर्दू का सर्वोत्तम कथाकार मानते हैं।"3 प्रेमचंद के उर्दू उपन्यासों की संख्या तेरह और हिंदी उपन्यासों की संख्या ग्यारह है । इसमें से अधिकांश उर्दू से हिंदी में रूपांतरित किए हैं । प्रेमचंद ने हिंदी जगत् को 'सेवासदन', 'वरदान', 'प्रेमाश्रम', 'रंगभूमि', 'कायाकल्प', 'निर्मला', 'प्रतिज्ञा', 'गबन', 'कर्मभूमि', 'गोदान' और 'मंगलसूत्र' (अपूर्ण) ये ग्यारह महत्त्वपूर्ण उपन्यास दिए हैं । इनमें से 'गबन', 'कर्मभूमि' और 'गोदान' पर विश्‍व के किसी भी रचनाकार को गर्व हो सकता है । भारतीय उपन्यास के इतिहास में 'गोदान' प्रेमचंद का चिर अमर कीर्ति-स्तंभ है । यह उनकी प्रौढतम और कालजयी कृति है ।
प्रेमचंद विश्‍व के सर्वोत्कृष्ट कहानीकार हैं । उन्होंने बड़ी संख्या में कहानियाँ लिखी हैं । वास्तव में उपन्यासकार की अपेक्षा वे कहानीकार अधिक हैं । सन् 1907 से सन् 1917 तक उन्होंने उर्दू में कहानी लेखन किया । सन् 1917 के उपरांत वे हिंदी संसार के कहानीकार हो गए । उनकी कहानियों में 'बड़े घर की बेटी', 'पंच परमेश्‍वर', 'ईश्‍वरीय न्याय', 'नमक का दरोगा', 'कज़ाकी', 'ईदगाह', 'पूस की रात', 'सवा सेर गेहूँ', 'ठाकुर का कुआँ', 'मुक्त धन', 'सद्गति', 'मोटेराम शास्त्री',  और 'कफ़न' आदि कहानियाँ बहुचर्चित रही हैं । इन कहानियों में हमें उनके उपन्यासों की तरह समग्र भारत का चित्र मिलता है ।
कथा साहित्य के साथ ही साथ प्रेमचंद ने कथेतर साहित्य में भी लेखन किया है । उनके निबंधों का एक संग्रह 'कुछ विचार' प्रकाशित हुआ है । 'संग्राम', 'कर्बला' और 'प्रेम की वेदी' इन तीन नाटकों की रचना उन्होंने की है । उनका पत्र साहित्य भी प्रकाशित हुआ है । उन्होंने फ़िल्मों के लिए कहानियाँ भी लिखी हैं । प्रेमचंद पत्रकार और संपादक के रूप में भी सफल रहे हैं । उन्होंने अपने जीवन काल में 'माधुरी', 'मर्यादा', 'हंस' और 'जागरण' आदि कई पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया है । प्रेमचंद ने हिंदी पत्रकारिता को नया मूल्यबोध और नई शक्ति देने का कार्य किया है । उनकी टिप्पणियाँ आज भी हमें प्रेरणा और शक्ति देती हैं ।
प्रेमचंद के साहित्य की मूल चेतना मनुष्य की सहजता का अन्वेषण और उसकी प्रतिष्ठा है । वे मनुष्य को जर्जर मान्यताओं से दूर अकृत्रिम और प्रकृत रूप में देखना चाहते हैं। उनके साहित्य से प्रथम बार जन-सामान्य को वाणी मिली है । साहित्य को मनोरंजन से उठाकर यथार्थ के साथ जोड़ने का महत्त्वपूर्ण कार्य भी उन्होंने किया है । उनके साहित्य से भारत के किसान और मध्यवर्गीय जीवन की अनेकमुखी समस्याएँ कलात्मक रूप से चित्रित हुई हैं । आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी मानवतावादी प्रेमचंद के बारे में लिखते हैं कि "प्रेमचंद शताब्दियों से पददलित, अपमानित और उपेक्षित कृषकों की आवाज़ थे । पर्दे में क़ैद, पद-पद पर लांछित और असहाय नारी जाति की महिमा के ज़बरदस्त वकील थे,  ग़रीबों और बेकारों के महत्त्व के प्रचारक थे ।"4
अन्याय और कुरीतियों पर प्रेमचंद ने चौमुखी आक्रमण किया है । पुरातन-पंथी और शहज़ोरों का उन्होंने हमेशा विरोध किया है । उनका समूचा साहित्य मानवता से लबा-लब भरा है और देशभक्ति की भावना में डूबा है । उनके साहित्यिक कृतित्व की पृष्ठभूमि में राजा राममोहनराय, विवेकानंद, दयानंद, गांधी, टैगोर, नेहरु, भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद तथा मैजिनी, गैरीबाल्डी, कार्ल मार्क्स और लेनिन जैसे स्वतंत्रता और मानव मुक्ति के लिए लड़ने वाले वीरों के स्वरों की प्रतिध्वनि सुनाई देती है । उनका साहित्य राष्ट्रीय आंदोलन का सटीक भाष्य है । वे  न केवल युगजीवन के साथ चले, बल्कि उसका मार्गदर्शन भी कर गए हैं ।
प्रेमचंद का दृष्टिकोण किसी भी बिंदु पर संकीर्ण नहीं था । वे धर्म निरपेक्षता के आदर्शों में सच्चा और गहरा विश्‍वास रखते थे । जातिगत भेदभाव, हिंदू-मुस्लिम समस्या, स्त्रियों की शिक्षा, विधवा विवाह, अछूतों का प्रश्न, किसान-ज़मींदार संघर्ष, हिंदी और उर्दू आदि जितने भी प्रश्न उनके सामने थे , सभी के प्रति उन्होंने उदार और प्रगतिशील विचार व्यक्त किए हैं । उनका सुधारवादी नज़रिया निरंतर गतिशील रहा है । इसीलिए आज के अनेक प्रगतिशील विचारकों से भी वे आगे हैं ।
प्रेमचंद के साहित्य में भारत का सच्चा, यथार्थ चित्र हमें मिलता है । यह भारत गाँवों और नगरों में, खेतों और खलिहानों में, सँकरी गलियों और राजपथों पर, सड़कों और गलियारों में, छोटे-छोटे खेतों और टूटी-फूटी झोंपड़ियों में रहता है । इसे बदलने का प्रयास प्रेमचंद ने अपनी लेखनी के माध्यम से किया है । आज हमारा जीवन जो भी है उसे गढ़ने में प्रेमचंद का लेखन एक निर्णायक शक्ति रहा है । वर्तमान समय की परिस्थितियों को देखकर आज भी उनका लेखन आवश्यक और प्रासंगिक लगता है ।
प्रेमचंद का साहित्य जीवन को मुखर करने वाला साहित्य है । उन्होंने इसके माध्यम से नए समाज के निर्माण हेतु जन-जागरण और अभ्युत्थान का पुनीत कार्य किया है । इसमें वे सफल भी हुए हैं । अपने व्यक्तित्व एवं कृतित्व के कारण वे अपने समय में ही अभूतपूर्व लोकप्रिय और जीवंत क्लासिक बन गए थे । उनके बारे में अमृतराय लिखते हैं कि "जीवंत क्लासिक ही जन-साधारण के बीच लगातार पढ़े जाते हैं । प्रेमचंद शायद उसी तरह का एक जीवंत क्लासिक है । प्रेमचंद आज भी पढ़ा जाता है, क्यों कि वह आज भी उतना ही ज़िंदा है जितना कभी था ।"5 प्रेमचंद जी ने जिस अभिनव परंपरा का सूत्रपात किया था वह आज अधिक पुष्ट होकर सतत प्रवाहमान है । यही कारण है कि प्रेमचंद आज भी प्रासंगिक हैं । वे केवल पाठ्यक्रम में निर्धारित साहित्यकार के रूप में ही नहीं वरन् स्वतंत्र रूप में सर्वाधिक पढ़े जाने वाले लोकप्रिय साहित्यकार हैं । उनका साहित्य किसी काल तक सीमित नहीं बल्कि शाश्‍वत है । उनका साहित्य और वे कालजयी हैं । वे आज भी हिंदी कथा साहित्य के सम्राट हैं। ऐसे नमनीय साहित्यकार को जयंती के अवसर पर अभिवादन ।
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2 टिप्‍पणियां:

  1. सचिन जी, नमस्कार। प्रेमचंद जी की जयंती पर उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालते हुए एक अच्छे आलेख के लिए बधाई और शुभकामनाएं।

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