प्रसिद्ध साहित्यकार रामदरश मिश्र जी से सचिन गपाट की बातचीत
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हुमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार रामदरश मिश्र जी हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर हैं । मिश्र जी उन वरिष्ठ रचनाकारों में से हैं जो सत्तासी वर्ष की उम्र में भी लेखन कर रहे हैं । उनका रचना संसार अत्यंत बृहद और सघन है । उनकी रचनाओं में आज भी नए लेखन की ताज़गी दिखाई देती है । मिश्र जी ने साहित्य की प्राय: हर विधा में ख़ूब लिखा है और आज भी वे लिख रहे हैं। 'दयावती मोदी कवि-शेखर सम्मान' जैसे अनेक महत्त्वपूर्ण सम्मान उन्हें मिल चुके हैं ।
उल्लेखनीय और प्रसन्न करनेवाली बात यह है कि हिंदी साहित्यकारों को के. के. बिड़ला फ़ाउंडेशन की ओर से दिया जानेवाला सन् 2011 का 'व्यास' सम्मान मिश्र जी को दिया गया है । यह सम्मान उनकी काव्य कृति 'आम के पत्ते' के लिए दिया है । इसके पूर्व यह सम्मान केवल बीस साहित्यकारों को मिला है । 'व्यास' सम्मान की घोषणा के बाद बधाई देने के लिए हम उनके वाणी विहार स्थित घर पहुँचे । इस अवसर पर उनसे विस्तृत बातचीत हुई । प्रस्तुत है यह पूरी बातचीत-
1. आप आज इस उम्र में भी निरंतर कार्यशील हैं, इसके पीछे कौनसी प्रेरणाएँ हैं जो
आपको निरंतर कार्यशील रखती हैं ?
देखिए, मेरा मन मूलत: सर्जनात्मक है । बचपन से ही मेरी यात्रा शुरू हुई थी । मुझे बहुत पता नहीं कि क्यों बचपन में ही मुझमें कुछ लिखने की तड़प होती रही । जब मैं दर्जा चार या पाँच में रहा होगा तभी से लोकगीत सुनकर या पाठ्यपुस्तकों या कविताएँ पढ़कर मन होता था कि मैं भी कुछ ऐसा लिखूँ, और मैं नहीं जानता था कि ऐसा क्यों होता था । लेकिन होता था । उसका कोई कारण कोई वजह मैं नहीं दे सकता । यही कह सकता हूँ कि मेरे भीतर एक कविता का या साहित्य का संस्कार रहा, और मैं प्राह्या देखता हूँ कि कुछ लोग लेखन की दिशा में आते हैं, दो चार कदम चलते हैं । फिर छोड़ देते हैं । शायद उनकी प्राथमिकता नहीं होती है । उन्हें लगता है कि कोई और अच्छी चीज़ बन गई तो यहाँ से जल्द से जल्द हट जाते हैं । लेकिन मुझे लगता है कि यह मेरी प्राथमिकता रही है, बचपन से ही और अनेक प्रतिकूल स्थितियों में भी यह बनी ही नहीं रही, सघन होती गई । अनेक प्रतिकूल स्थितियों ने मुझसे साहित्य पाया और मैं उनका आभारी हूँ कि उन्होंने जीवन का अनुभव दिया, जीवन का बड़ा नाम दिया, जीवन का रस दिया । मैं कहूँगा आपको कि मैं बहुत दूसरा आदमी हूँ । कहीं जाने का मन नहीं होता है । लेकिन यह मेरी नीयत रही है । वह देखते ही क्रूर रही लेकिन मेरा उपकार करती रही है। वह हमेशा मुझे हाँकती रही । निकलो, घर से निकलो । मैं बनारस में था तो इच्छा होती थी कि काश ! मैं यहीं रह जावूँ । लेकिन वहाँ मुझे नौकरी नहीं लगी तो मैं गुजरात में गया । गुजरात में भी आठ साल रहा । वहाँ से भी नीयत मुझे हाँककर दिल्ली ले आई । मैं चाहता नहीं था । मैं बहुत निष्ठुर आदमी हूँ । लेकिन नीयत जो है वह मेरी स्थिरता को तोड़ती रही है और अच्छी दिशा में ले जाती रही है । तो मैं इन तमाम स्थितियों में, तमाम भागदौड़ में, तमाम कश्मकश में मैं लिखता गया और अधिक से अधिक लिखता गया । तो मुझे लगता है कि मेरा जो मन है वह कहीं मूलत: सर्जनात्मक है और देखिए न कि मैं अभी ताज़ा हूँ, यारा हूँ और अनेक लोग साठ साल के बाद ही चूक जाते हैं । बंद कर देते हैं । लेकिन मैं लगातार लिख रहा हूँ और भीतर से लिख रहा हूँ । ऐसा नहीं कि मुझे हर लिखना है । लेकिन कुछ नहीं लिखूँगा, कुछ नहीं पढ़ूँगा तो लगता है कि दिन व्यर्थ गया है । बेकार गया है । तो भीतर की जो एक क्रिएटिविटी है वह निरंतर मुझे लिखने के लिए प्रेरित करती है, लिखने के लिए तत्पर करती है और इसीलिए इन दिनों मैं कहानी नहीं लिख रहा हूँ, उपन्यास नहीं लिख रहा हूँ, कविताएँ लिख रहा हूँ । छोटी-छोटी कविताएँ लिख रहा हूँ । मुक्तक लिख रहा हूँ या डायरी लिख रहा हूँ । क्यों की जानता हूँ कि अब इस उम्र में बड़ा काम नहीं कर सकता हूँ । बड़ा मतलब एक लंबा काम । इसलिए छोटी कविताएँ, मुक्तक या डायरी लिखता हूँ और मैं जानता हूँ कि ये जो चीज़ें हैं वे बड़े फलक को तो नहीं दे सकती । लेकिन आपके जीवन के छोटे-छोटे पलों को, छोटे-छोटे स्पंदनों को पकड़ती है और भरती है और उनका जीवन में बड़ा महत्त्व होता है । तो इतना कि मूलभूत रूप से मैं कहीं क्रिएटिव हूँ और वह क्रिएटिविटि मुझे लिखने के लिए बाध्य करती है ।
2. प्रकृति के प्रति आपको बहुत स्नेह रहा है । आपके समग्र साहित्य में प्रकृति दिखाई देती है । लेकिन आपको 'फ़रवरी' महीना ही बहुत अच्छा लगता है, इस बारे में हम जानना चाहते हैं और संयोग भी यह है कि हम भी इसी महीने में साक्षात्कार के लिए उपस्थिति हैं ।
'फ़रवरी का महीना महीना नहीं होता, वह साल की डाल पर खिला हुआ एक बड़ा सा फूल होता है ।' इसकी वजह यह है कि एक तो यह कि गाँव का होने के नाते प्रकृति से मैं बहुत गहरे जुड़ा रहा । यह गाँव का जीवन प्रकृति के बग़ैर तो होता ही नहीं है । अब देखिए शहर में भी महीनों को लोग याद करते हैं, अपनी तरफ़ से। यदि पानी नहीं बरसा तो शहर के लोग कहेंगे बड़ी ऊब हो रही है । बड़ी गर्मी हो रही है, काश! पानी बरसता । किसान कहता है कि अगर पानी नहीं बरसा तो हमारी ज़िंदगी चली जाएगी । वहाँ उमस का सवाल नहीं है सवाल ज़िंदगी का है । वहाँ प्रतीक नहीं ज़िंदगी है । चाहे वह बरसात हो, चाहे वह शरद हो, चाहे वह जाड़ा हो या वसंत हो । तो ज़िंदगी के संदर्भ में मैंने प्रकृति को देखा । देखा क्या भोगा । और फागुन याने फ़रवरी का महीना मुझे बहुत प्रिय रहा है । इसलिए कि यह होली का मौसम तो होता ही है । शायद इसलिए भी कि यह किसान के जीवन का महोत्सव होता है । मुझे मालूम है कि गाँव में अभाव ठाँटे मारता था । जाड़ों में भूख पसरी होती थी । और जैसे ही फ़रवरी आती थी लगता था कि खेत पकने लगे हैं । मटर भी है, गेहूँ में थोड़ी सी पकान आने लगती थी । तो लगता था कि ज़िंदगी में एक उजास का आगमन हो रहा है। और जो भूखे लोग होते थे वे कही थोड़ा सा मटर तोड़ कर आ रहे हैं । कहीं कुछ थोड़ासा गेहूँ पक गया है उसको काटकर आ रहे हैं । तो होली या फागुन में जो गीत है ना वह गीत जीवन का गीत है । वह केवल एक औपचारिक गीत नहीं है । वह ज़िंदगी से उठा हुआ गीत है । और लोगों के, किसानों के मन में लगता था कि अब हमारे खेत पकेंगे, खलिहान भर जाएगा, घर में अन्न आएगा । तो वह एक भीतर से उल्लास उठता था वह होली बन जाता है । वही फूहड़, चौताल बन जाता है । एक गीत बन जाता है । और ख़ास एक मौसम में, हवा में जो खनक होती है । जाड़े के बाद जो एक खनक होती है हवा में । फूल खिल जाते हैं, पपीहा बोलता है, कोयल बोलती है । तो यह गाँव के मन को हर तरह से यह मौसम जो है बहुत प्रिय लगता है । और मेरा मन एकदम गाँव का है । तो इसलिए मैं इस मौसम को या मेरे साथ तमाम लोग इस मौसम को प्यार करते रहे हैं । पूरा गाँव जो है फागुन को प्यार करता है । मुझे याद आता है कि फागुन आते ही लोग यात्राएँ शुरू करते थें, रंगों में भीगे चले आ रहे हैं, फटे कपड़े के ऊपर रंग पड़े हुए हैं, गीत गाते चले आ रहे हैं कहीं वे कबीर गाते चले आ रहे हैं और होली बीतने के साथ एक आदमी रो रहा है हाय ! फगुनवा बीता जात है । हाय ! फगुनवा बीता जात है, रो रहा है । तो मेरा ही नहीं पूरे गाँव का जो मन है फागुन का मन होता है ।
3. आपकी लंबी और सफल साहित्य यात्रा में आप किसी परचम के नीचे नहीं आए तथा किसी विशेष ख़ेमे से जुड़े भी नहीं, आपने खुद का रास्ता बनाकर सफलता पाई । यह कैसे संभव हुआ ?
यह भी मन की ही बात है । मेरा मन बड़ा स्वाभिमानी है और किसी के, किसी
भी प्रकार के दबाव में नहीं आता है । उसे अपने पर विश्वास है, अपनी सर्जना पर विश्वास है कि मेरे भीतर वह दम-ख़म है कि अपने गाँव से मैं निकलूँगा, चललूँगा । तो हुआ यह कि सन पचास के बाद अपने माहौल में अपने माहौल का असर पाकर मैं भी मार्क्सवादी हुआ था । वह नई कविता का दौर था । नई कविता में अनेक रंग थे । विजयवादी रंग भी था, व्यक्तिवादी रंग भी था और मार्क्सवादी रंग भी था । तो मैं नई कविता का वह कवि हूँ जिसका रंग मार्क्सवादी था । लेकिन मार्क्सवाद को मैंने एक फ़ार्मूले के तौर पर नहीं लिया क्यों कि मेरा गाँव का जो अनुभव था वह मेरे साथ था । मेरा कवि हमेशा महसूस करता रहा है कि अनुभव सबसे बड़ी ताकद होती है । अनुभव सशक्त है कवि का । कवि की विचारधारा एक विजन है, दृष्टि है जो अनुभव को रचती है यह अनुभव को बनाती नहीं है । अनुभव के निर्माण में विचारधारा, विचार का भी योगदान होता है । एक ही चीज़ को देखकर हमारा अनुभव कुछ हो सकता है, आपका कुछ हो सकता है क्यों कि हमारी विचार दृष्टि अलग है । कोई आदमी विपत्ति में हाय ! तोबा करता है तो कोई कहता है हम विपत्ति से लड़ेंगे । तो एक विजन है जो सोचता है, एकाध सोचता है कि अब क्या होगा मर जाएँगे, एकाध सोचता है कि मौत तो जीवन का सत्य है । उससे क्या घबराना । तो मेरे कहने का अर्थ यह है कि अनुभव ने मुझे बहुत बल दिया । उस अनुभव के साथ मेरा विचार जुड़ा रहा। लेकिन मैं विचार के फ़ार्मूले से कहीं नहीं जुड़ा हूँ । जो हमारे वाद बनते गए वो फ़ार्मूला बनते गए और हम दिल्ली के जो निवासी हैं जानते हैं कि कैसे ये वाद बनते हैं । कैसे चार आदमी मिलकरके एक वाद बना रहे हैं अपनी चर्चा के लिए । तो मुझे बड़ी घिन होती थी । बड़ा कष्ट होता था कि यह सब क्या हो रहा है ? तो इसीलिए मैं किसी वाद से जुड़ा नहीं क्यों कि वादों की निसार्थकता को मैं समझता था । पर वाद का नारा चाहता था कि समय बदल गया है । पुराना समय चूक गया है । नया समय आ गया है यही ना । और मैं सहज स्वभाव से समय के साथ चलता गया । समय सहचर है, सहचर है समय । मैं समय का सहचर हूँ । समय मेरा सहचर है । तो मैं किसी एक ख़ास समय बिंदु को पकड़कर बैठा नहीं रहा हूँ । मैं उसके साथ चलता रहा हूँ । वो लोग नारा लेकर करते रहे वह मैं सहज भाव से करता आ रहा हूँ । तो इसलिए सहज ही मेरे लेखन में निरंतर एक बदलाव सा दिखाई पड़ता गया । मुझे खुद पता नहीं कि मैं बदलाव ला रहा हूँ । जब 'पथ के गीत' के बाद मेरी किताब आई 'बैरंग बेनाम चिट्ठियाँ' तो मुझे लगा कि कविताएँ तो अलग हैं । जब 'पक गई है धूप' आया तो लगा की कविताएँ तो 'बेरंग बेनाम चिट्ठियों से अलग हैं । मैंने अलग लिखा नहीं था । लेकिन समय का जो दबाव है उसके तहत सहज ही एक आंतरिक परिवर्तन आता गया और हर कृति जो है वह एक दूसरे से अलग होती गयी । तो यह सब मेरे मन के सहज आदेश पर होता गया और मैंने अपना रास्ता खुद बनाया । मुझे लगा कि जो साहित्य का रास्ता है वह हर आदमी का अपना रास्ता होता है । यह ठीक है कि हम शास्त्र से सीखते हैं, शास्त्र से अच्छे सिद्धांत सीखते हैं । छंद सीखते हैं, अलंकार सीखते हैं । लेकिन उन सबका उपयोग कैसे करना चाहिए उन्हें अपने अनुभव के साथ कैसे जोड़े, आपके विजन के साथ कैसे जोड़े यह आप को सोचना होता है । उसने ऐसा लिखा है तो हम भी ऐसा लिखें । यह आपका रास्ता नहीं है । यह रास्ता आपको बहुत दूर नहीं ले जाता है । आपका अपना रास्ता जो है वह बहुत देर में आपको पहचान देगा, लेकिन देगा और जो दूसरों का रास्ता है वह आपको पहचान तुरंत देगा । लेकिन वह तुरंत मिट भी जाएगा । तो यह है कुछ मेरे भीतर जो मुझको निश्चित रास्ता बना है लगता । होता रहता है। धीरे-धीरे ।
4. आपकी लगभग साठ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं किंतु प्रत्येक नई रचना पिछली रचनाओं से अलग है । विषय और शिल्प की यह विविधता कैसे संभव हो पाती है ?
यह तो मैंने अभी कहा कि मैं समय के साथ चलता रहा और समय में जो बदलाव आता गया वह बदलाव सहज ही मेरी कृतियों में आता गया । दूसरी बात यह कि एक समय वय का भी होता है । एक समय हमारे आसपास का होता है । यानी हम निरंतर प्रौढ़ होते हैं और अपनी असफलताओं से सीखते हैं । जब मैंने 'पानी के प्राचीर' लिखा तो मुझे लग गया कि मुझे क्या बदलाव लाना चाहिए । तो 'जल टूटता हुआ' में उससे बचता गया । दोनों उपन्यासों की भूमि एक ही है मैंने देखा कि मैंने क्या ग़लतियाँ की हैं, मेरी क्या असफलताएँ हैं, मुझे और क्या करना चाहिए । तो अपनी असफलताओं से आदमी सीखता है और जो वय की यात्रा है उस यात्रा में जो आपका विवेक, विवेक का निरंतर सहयोग मिलता है उससे भी आप बदलाव लाते हैं । तो बदलाव समय के प्रभाव का भी होता है और आपके वय के समय के ज्ञान का भी होता है, विचारकों का भी होता है । तो दोनों ने भी हमारे साहित्य को बदलाव प्रदान किया है । इसीलिए मैंने आपसे कहा कि मेरी हर अगली रचना जो है पिछली रचना से भिन्न है ।
5. आपने महानगरों में रहते हुए ग्रामीण जीवन को उपन्यासों के माध्यम से प्रस्तुत किया है। यह अभिव्यक्ति क्या अतीत मोह के कारण हुई है ? इस बारे में आप कुछ बताना चाहते हैं ।
ऐसा है कि शहर में मैं रहा ज़रूर लेकिन मेरे अनुभवों की बुनियाद तो गाँव की रही है । मेरा एक शेर है "देखिए उसके शहर की अनोखी त्रासदी, पूछता है दिल्ली में आकर दिल्ली कितनी दूर है ।" दिल्ली कितनी दूर है । तो मैं शहर में रहा लेकिन मेरे जो अनुभव थे वह मेरी संपदा थी । वह गाँव की थी और शहर की भी थी । देखिए जो बुनियाद होती है वह बड़ी प्रबल होती है । बड़ी प्रमुख होती है । हमने कविताएँ जो लिखीं वह शुरू से लिखी यानी जब मैं गाँव में था, पढ़ता था । तबसे कविताएँ लिख रहा था । लेकिन कथा साहित्य तो मैंने बाद में शुरू किया। तो जब मैंने कथा साहित्य शुरू किया तब गाँव कि सारी संपदा जो है वह तैयार बैठी थी आने के लिए । गाँव के सारे कैरेक्टर, गाँव की प्रकृति, गाँव का जीवन, गाँव की जिजीविषा, गाँव की समस्याएँ, गाँव का भाईचारा यह सब मेरी संपदा है । तो शहर मेरी लेखन भूमि भले ही रहा है लेकिन विजन वहाँ का नहीं था और अतीतोन्मुखता की बात नहीं होती है । देखिए किसी विशिष्ट काल की रचना और अनुभव में एक दूरी होती है । अनुभव एकाएक रचना में नहीं आता और आता है तो थोड़ा ऊपरी हो जाता है । वह जब पकता है भीतर, पकता रहता है, पकता रहता है और तब रचना में आता है । तो उसमें जो मूल्यवान् तत्व होते हैं वो बचे रहते हैं । बाक़ी छँट जाते हैं । लेकिन मान लीजिए आपसे किसी का झगड़ा हो रहा है तो झगड़े में उसको आप बहुत कुछ कहोगे । जरा दिन बाद सोचेंगे की भाई गलती मेरी थी । यह मुझे नहीं कहना चाहिए था । जो तत्व होगा वह बचा रह जाएगा । तो शहर में आकर मैं गाँव पर लिख रहा हूँ । यह अतीतोन्मुखता नहीं है बल्कि अपनी पुरानी संपदा को क्रिएट करना है । संपदा को नियमित करना है और अनुभव शहर में भी हुआ लेकिन वह जो आर-पार का अनुभव होता है वह गाँव में ही होता है । मैं अक्सर कहता हूँ कि शहर में दो घरों के बीच में दीवार है । आप नहीं झाँक सकते कि पड़ोसी के घर में क्या हो रहा है, क्या नहीं हो रहा है । गाँव का जो अनुभव है वह आर-पार का अनुभव है । आप को पता है किस घर में चूल्हा जला है, किस घर में नहीं जला है । किस घर में आँखें रोई हैं । किस घर में हँसी हैं । आप बाहर चाहे भले ही हँसते आए लेकिन समझ में आता है कि आपकी आँखें रोई हैं । आप भूखे हैं दो दिन से भूखे हैं । और वहाँ आदान-प्रदान होता हैं भावों का, अनुभवों का, दु:खों का, दर्दों का । यह गाँव जैसे एक यूनिट बन जाता है । एक इकाई बन जाता है । तो वह जो अनुभव की सघनता है आपकी बड़ी संपदा बनकर आपके साथ रहती है । आप चाहे शहर में रहें या गाँव में रहें वह बार-बार हाट करती है, दस्तक देती है । तो गाँव की संपदा दस्तक देती रही है और जब मैंने शहर पर लिखा तो भी उसमें गाँव आता रहा । इसीलिए आता रहा कि गाँव और शहर दोनों का अनुभव मुझे था । दोनों के जीवन की जो स्थितियाँ थीं वे मेरे भीतर थीं। वे दोनों टकराती थीं और आती-जाती रहती थी । इससे कहीं गाँव में जा रहा है तो कहीं गाँव शहर में आ रहा है । दोनों आ-जा रहे हैं । तो यह वही कर सकता है जिसका अनुभव गाँव का भी हो और शहर का भी । तो मुझे गर्व है कि मैं गाँव में पैदा हुआ और वह संपदा लेकर शहर के साथ जुड़ा हूँ ।
6. आपके उपन्यासों में ग्रामीण जीवन का यथार्थ और उसकी समस्याएँ चित्रित हुई हैं । पर समस्याओं को सुलझाने की दृष्टि से सुझाव लक्षित नहीं होते । इस बारे में हम जानना चाहते हैं ।
यह मैं मानता हूँ कि सुझाव का काम होता है वह लेखक का नहीं होता है । वह तो जो इतिहास है, जो समय है उसकी सही पहचान करता है । अपनी ओर से सुझाव देना बड़ा आसान होता है । प्रेमचंद जी ने पहले सुझाव दिए थें अपने उपन्यासों में । लेकिन देखा आपने कि वे उपन्यास उनके या वे कहानियाँ उनकी अच्छी मानी गयी जिनमें सुझाव नहीं थें। तो सुझाव देने का अधिकार आपको नहीं है । आपके कहने से समय नहीं बदलेगा । इतिहास का अपना रास्ता होता है । तो लेखक का काम होता है उस इतिहास को गहराई से पकड़ना, समय को गहराई से पकड़ना और खड़ा होना उस आदमी के पक्ष में जो कि बेबस है, जो कि मूल्यवान् है, जो शोषित है, जो दलित है और जो दुखिया है उसके साथ खड़ा होना । तो यथार्थ के सारे संक्रमण, सारे संकेत को चित्रित करते हुए भी आपका एक काम होता है कि आप मूर्तियों को संकेत करें । यानी कहाँ जाना चाहिए समाज को यह संकेत होता है । आप पूरी स्थापना नहीं कर सकते, पूरा संकल्प नहीं दे सकते । लेकिन जो विसंगतियाँ हैं, ख़राबियाँ हैं, आपको बोलना होता है और जो अच्छाइयाँ हैं उन्हें संकेतीत करना होता है । जैसे मानिए कि 'बीस बरस' उपन्यास में गाँव बिगड़ रहा है । गाँव के सारे मूल्य टूट रहे हैं । भाईचारा टूट रहा है । लेकिन मैंने दो बातों को रेखांकित किया कि दलित उभर रहे हैं । नारियाँ उभर रही हैं । यह एक मूल्य है । इस बढ़ते हुए मूल्य को पकड़ना, संकेत करना भी आवश्यक है और जो मूल्यवान् मूल्य टूट रहे हैं उनका दर्द भी दिखाया है । जो ख़राब मूल्य हैं वो टूट रहे हैं उसके प्रति ख़ुशी भी ज़ाहिर होती है कि जो मूल्य काम में नहीं थें, जिन्हें नकारा गया था । लेकिन कुछ मूल्य बहुत अच्छे थें । भाईचारे का मूल्य, उत्सवों, मेलों के साथ आदमी का संबंध, होली के साथ, दिवाली के साथ, मौसमों के साथ, पर्वों के साथ यह सब ठंडा हो रहा है । लेकिन यह अच्छा भी हो रहा है कि नारियाँ जाग रही हैं, दलित जाग रहे हैं । यह मैंने रेखांकित किया है । तो मैं आपसे कहूँगा कि सुझाव देना हमारा काम नहीं है । संकेत करना ज़रूरी होता है । वह संकेत होता है और वह किया है मैंने ।
7. रचनाकार को उसकी कृतियों में ढूँढ़ना उचित नहीं है । फिर भी आपके उपन्यास पढ़ने पर कभी आप 'पानी के प्राचीर' का नीरू, 'जल टूटता हुआ' का सतीश, 'सूखता हुआ तालाब' के देवप्रकाश, 'बीस बरस' उपन्यास के दामोदर लगते हैं । इस बारे में आप क्या बताना चाहते हैं ?
आपने सही सवाल किया और सही सोचा भी है । कहीं न कहीं मैं हूँ इन पात्रों में । भिन्न-भिन्न रूप में हूँ और मैं तो हूँ ही और भी कई पात्र हैं । चाहे सतीश हो, चाहे नीरू हो और 'बीस बरस' के दामोदर हो, 'अपने लोग' का प्रमोद हो इनमें मैं हूँ । लेकिन मेरे साथ कई और पात्र हैं जिनको संसक्त किया गया है । तो यह स्वाभाविक है आदमी जो जीवन जीता है उसके प्रति काफ़ी प्रामाणिक होता है । तो चीज़ों को प्रामाणिक रूप से देखने के लिए प्रामाणिक होना भी चाहिए । प्रामाणिक लगे चीज़ इसके लिए रचनाकार अपने को कहीं ले आता है और अपने माध्यम से प्रकट करता है । 'शेखर एक जीवनी' में अज्ञेय खुद हैं । तो लेखक कहीं न कहीं खुद होता है वह प्रत्यक्ष रूप में या अप्रत्यक्ष रूप में होता है।
8. आपने ग्रामीण जीवन को व्यापकता से यथार्थ रूप में चित्रित किया है । लेकिन उसमें एक सशक्त किसान नज़र नहीं आता । उसका अभाव लक्षित होता है ।
देखिए सशक्त किसान की परिभाषा आप क्या दे रहे हैं ? मैं नहीं जानता । किसान ग़रीब भी होते हैं, धनी भी होते हैं । अच्छे भी होते हैं, बूरे भी होते हैं । तो मेरे उपन्यासों में किसानों के कई रंग हैं । कुछ बहुत ग़रीब हैं, जैसे नीरू हो, सतीश के पिता ये ग़रीब ही हैं । दीनदयाल जैसे कुछ धनी के रूप में आते हैं और कई पात्र हैं जो ग़रीब किसान के रूप में आते हैं । लेकिन सशक्त सभी हैं । जो किसान चाहे उसके पास ज़मीन छोटी हो या बड़ी हो वह अपनी ज़मीन से जुड़ा हुआ है । अपनी ज़मीन में यथा शक्ति काम कर रहा है । उसके साथ सुख-दु:ख में जुड़ा है । बाढ़ की विभीषिका के बावजूद भी सभी अपना खेत बोते हैं । खेत में काम करते हैं । फिर बाढ़ आती है । खेत बह जाता है । फिर हर आदमी खेत बोता है उधार लेकर, क़र्ज़ा लेकर । अब किसानों का यही तो जीवन सशक्त है अशक्त का तो इसमें कोई मतलब नहीं समझ पा रहा हूँ ।
9. वर्तमान ग्रामीण उपन्यासों के बारे में आप क्या कहना चाहते हैं ? आज उसकी स्थिति
के बारे में हम जानना चाहते हैं ।
देखिए, उपन्यास लिखें जा रहे हैं । रोज़ अच्छे उपन्यास नहीं आते हैं । हिंदी में गाँव पर भी काफ़ी उपन्यास लिखे गए हैं और शहर पर भी लिखे जा रहे हैं । अब कई उपन्यासों की चर्चा भी रही है । अब मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास तो गाँव को लेकर ही हैं । चर्चा होती रहती है । अनेक लेखक लिख रहे हैं । मतलब यह कि काफ़ी उपन्यास आए हैं जो कि चर्चा में रहे हैं । तो निराश, हताश होने की कोई बात नहीं है । लेकिन यह सच है कि अच्छे उपन्यास कभी कभी आते हैं । किंतु यह छोटे-बड़े उपन्यास सहज आते हैं और उनका महत्त्व होता है । उसकी मूल्यवत्ता होती है । तो अच्छा परिदृश्य है हमें निराश होने की आवश्यकता नहीं है । लेकिन बहुत कम लोग गाँव पर लिख रहे हैं । जो लोग गाँव का अनुभव लेकर आए हैं वे शहर में रहते हुए भी गाँव पर लिख रहे हैं । जो भी गाँव के लोग हैं गाँव पर लिख रहे हैं ओर अच्छा लिख रहे हैं । जिनको गाँव का अनुभव नहीं हैं वे गाँव पर कैसे लिखेंगे ? तो हम बाँटना नहीं चाहते हैं । आपको जहाँ के जीवन का अनुभव है उसकी ही ज़िंदगी को उठाना पड़ता है । ऐसा नहीं है कि आपने गाँव पर एक किताब पढ़ ली और आप गाँव पर लिख रहे हैं । या गाँव बैठकर शहर पर लिख रहे हैं । उपन्यास में अनुभव की बड़ी गहराई होती है । गहराई तब आती है जब आप वहाँ का जीवन जीते हैं । तो गाँव में जीवन जीने वाले लोग हैं वे लिख रहे हैं गाँव पर ।
10. आज वैश्वीकरण के युग में किसान आत्महत्याएँ कर रहे हैं । ग्रामीण जीवन का मूल ढाँचा टूट रहा है । लेकिन हिंदी ग्रामीण साहित्य में यह संवेदना व्यापक रूप से नहीं दिखाई दे रही है । इस बारे में आप क्या सोचते हैं ?
नहीं ऐसा नहीं है । मेरा ख्याल है कि कहानियाँ तो आ रही है । कुछ कविताएँ भी आ रही है । उपन्यास कोई आया हो ऐसी मुझे ख़बर नहीं है । लेकिन किसान आत्महत्या कर रहा है यह समस्या हिंदी प्रदेश की नहीं है । यह मराठी प्रदेश की बहुत बड़ी समस्या है या गुजराती परिवेश की है । हिंदी प्रदेश में यह समस्या नहीं है इसलिए हिंदी वाले किसान आत्महत्या वाला प्लॉट न लिखते हो । आज तो मैं ज्यादा पढ़ता नहीं हूँ और पढ़ भी नहीं पाता हूँ। लेकिन उस परिवेश की भाषाओं में यह संवेदना दिखाई दे रही है और उसपर लिखा जा रहा है ।
11. आपके उपन्यासों के ग्रामीण पात्र गाँव से दूर शहरों में जाने पर गाँव को हमेशा याद करते हैं, क्या आप भी ऐसा सोचते हैं ?
हाँ, हम तो सोचते ही हैं । हमारे पात्र भी ऐसा ही सोचते हैं । यहाँ रहकर भी गाँव की याद आती रहती है । गाँव जाने का मन भी होता रहता है । लेकिन जा नहीं पाता हूँ यह अलग बात है क्यों की अब स्वास्थ्य इसकी अनुमति देता नहीं है । लेकिन गाँव पुकारता रहता है । शहर में हम है और शहर अपना है । उसका अपना एक अलग रिश्ता है । लेकिन गाँव तो माँ की तरह है ना । माँ का स्थान तो काई नहीं ले सकता । तो गाँव माँ की तरह पुकारता है । मूल यह है कि शहर में रहते हुए भी भूल नहीं पाता है । इसीलिए "हो गया हूँ दोस्तों दिल्ली शहर का, घर मेरा अभी वहीं गोरखपुर जिला है ।"
12. आपके बचपन का अभावग्रस्त जीवन और आज का सफलता से भरा जीवन आप कैसा महसूस करते हैं ?
तब भी मैं ख़ुश था और आज भी ख़ुश हूँ । अच्छा लगता है । मतलब शहर की जो थोड़ी बहुत संपन्नता है वह अच्छी लगती ही है । लेकिन गाँव के अभाव ने मुझे यह दर्द दिया है कि कभी भी गाँव के स्वभाव को भूल मत जाना । जो अभाव का सोना तुम्हें दिया है वह अपने साथ रखना क्यों कि तुम्हारे शहरी संपन्न मन को ठीक से सर्जनशील बनाए रखेगा। संपन्नता मतलब सब कुछ ठीक से चल रहा है । मैं वैसा संपन्न नहीं हूँ जो संपन्नता मेरे मन को पत्थर बना दे । जीने योग्य संपन्नता है पर इसमें भी गाँव के अभाव की यादें समाई हुई है । इसलिए हमें आम आदमी अच्छे लगते हैं । आम आदमी के दुख-दर्द मुझे अपने लगते हैं । ये ही हमारे सुख को, हमारी संपन्नता को कठोर पत्थर बनने नहीं देते हैं । तो इस सुख में दुख का कुछ मूल्य है वह समाया हुआ है ।
13. वर्तमान हिंदी ग्रामीण उपन्यास और ग्रामीण जीवन का भविष्य इस बारे में आप को क्या लगता है ?
भविष्य की बात कौन जानता है कि भविष्य में क्या होगा । हम लोग वर्तमान की बात करते हैं और वर्तमान में जो हो रहा है उसकी । मैंने अभी अभी आपसे कहा कि गाँव के जीवन पर लिखा जा रहा है । जो लोग गाँव के जीवन को जीने वाले हैं वे लिख रहे हैं । कल गाँव कैसे बन जाएगा और क्या बन जाएगा । जैसा गाँव बन जाएगा लोग देखेंगे । कल की बात कौन जानता है । पंडित द्विवेदी जी कहते थे "हम ज्योतिषी तो है लेकिन फिर भी ज्योतिषी नहीं है ।" कल क्या होगा हम क्या ज्योतिष जानेंगे । कल का जवाब किसी के पास नहीं होता है । कल हम क्या हो जाएँगे, कल दुनिया क्या हो जाएगी । कल हो सकता है कि ख़राबी का एक अच्छा रिएकशन हो । कुछ भी हो सकता है । कल कई आण्णा पैदा हो जाए । एक आण्णा के पैदा होने से थोड़ी हलचल मची । तो हो सकता है कि और भी आण्णा पैदा हो जाए । कौन जानता है क्या होगा ? तो जो वर्तमान है उसको पहचानना और उसमें से मानवी मूल्यों को उभारना, सांकेतित करना । चाहे निगेटिव हो या पॉझिटिव हो मूल्य बहुत आवश्यक होते हैं । उपन्यास हो, कहानी हो या कविता हो पढ़ने के बाद लगेगा की मुझे कुछ उजास प्राप्त हो रहा है । कुछ हमें जीवन जीने की चाह पैदा हो गयी है । कुछ तमन्ना पैदा हो रही है । यह सांकेतिक होता है यह प्रत्यक्ष रूप में नहीं दिखाई देगा । प्रेमचंद की एक कहानी है । जिसमें एक सेठ दिवालिया हो गया । वो मरने जा रहे थें । उनके पास एक चवन्नी थी । रास्ते से जाते हुए सोच रहे थे कि इस चवन्नी का क्या करें । तब उन्होंने रास्ते पर पत्रिका ख़रीदी और मरने से पहले बैठकर कहानी पढ़ने लगे । कहानी पढ़कर वे घर लौट आए और संपन्न हो गए ।
प्रेमचंद दिल्ली के एक समारोह में आए थे । एक आदमी बार-बार चिट देकर कह रहा था मैं भी कुछ बोलूँगा, मैं भी कुछ बोलूँगा । प्रेमचंद मना कर रहे थे मुझे जाना है, जाना है । वह पास गया और कहने लगा आप सुन ही नहीं रहे हैं । हमें कुछ कहने दीजिए नहीं तो हम यहाँ आत्मदाह कर देंगे । तब उसे अवसर दिया गया । उसने सुनाया कि यह ज़िंदगी जो है वह प्रेमचंद की दी हुई है । तो यह जो आत्महत्या करने जा रहा था वह प्रेमचंद की कहानी पढ़कर लौट आता है और संपन्न बन जाता है । इस प्रकार जीवन देने की एक आहट रचना में होनी चाहिए । तो मुझे कहना यह है कि लेखन प्रकारांतर से ज़िंदगी को वापस करता है । फिराक ने कहा था कि "कविता हमारी इंसानियत वापस करती है ।" तो हमारी संवेदना को, मूल्यवत्ता को, हमारी ज़िंदगी को वापस करने की आकांक्षा साहित्य है । लेकिन उसका अपना ढंग है । अख़बारी ढंग नहीं होता । बड़ा सांकेतिक, बड़ा गहन वह एकाएक पढ़कर समझ नहीं पाएँगे । वह धीरे-धीरे असर करेगा और वह समाज की संवेदना को सँवारता रहेगा । इसे बरसों लग जाएँगे ।
14. युवा ग्रामीण साहित्यकार और उसके पाठकों को आप कौनसा संदेश देना चाहते हैं ?
वो अपनी राह चले । अपनी राह खुद बनाए । विजयी हो । अपना मुहावरा, अपने प्रतीक, अपने बिंब चुने और अपने अनुभवों पर आश्रित हो । अनुभव के फ़ार्मूले पर नहीं । अपने अनुभव पर आश्रित हो । तभी देर-सबेर उन्हें अपनी मंज़िल मिलेगी और उन्हें अच्छा लगेगा ।
15. आज भी आपके भीतर किसी युवा साहित्यकार जैसी उत्कटता, उत्साह दिखाई देता है। अब आप आगे कुछ लिखने की योजना बना रहे हैं ।
मैं योजना नहीं बनाता हूँ । मेरे मन में चीज़ें लगातार आती रहती हे । लिखता रहता हूँ । जैसे बहुतसे लोग यह कहते है कि अब तक जो मैंने लिखा महान वृक्ष की योजना बना रहा हूँ । ऐसा कोई मुहारा मेरे मन में नहीं है । मैं तो यह कहता हूँ कि जो उपन्यास अच्छे आने चाहिए वे आ गए । देखता हूँ कि अब अच्छे उपन्यास नहीं आएँगे । पर आज अच्छा लिख रहा हूँ कविताओं में । उसके लिए कोई योजना नहीं है । बैठे हम और कोई बात मन में आ गई । कोई पंक्ति मन में आ गई । तो लिखने बैठ गया । डे टूडे, रोज़-रोज़ नए नए अनुभव से रूबरू होना है । नए साहित्यकारों के साथ उठना-बैठना है । यह अच्छा लगता हे। ये लोग आते हैं हमारे यहाँ । अक्सर आते हैं और अपनी किताब दिखाते हैं । मुझे इससे ऊर्जा मिलती है । मुझमें जो ऊर्जा है उससे अधिक इनसे मिलती है ।
साहित्य का रास्ता कोई बहुत बड़ा इकहरा रास्ता नहीं होता है । कहाँ कहाँ से आप पाते हैं । कहाँ कहाँ आप देते हैं । जो चीज़ अपने अधिकार में नहीं है वह कल अपने अधिकार में आ गई । देखा नहीं जाता । बताऊँ आपको, मैं गुजरात में था । तो एक मकान जिसमें मैं रहता था । उसकी छत पर एक निशान था पाँव का । तो मैंने कहा हो गया होगा । जब छत बन रही होगी तब किसी का पाँव पड़ गया होगा । उसे मैं रोज़ देखता था। एक दिन उसी ने पकड़ लिया । वह मेरे लिए प्रतीक बन गया । "हाँ यह मकान तिमंज़िला, चौमंज़िला हो गया । इसकी सिमेंट सूख कर कड़ी हो गयी । लेकिन उस दिन तुमने मज़ाक मज़ाक में गीली सिमेंट पर मुलायम पाँव रख दिया था । वह ज्यौं का त्यौं है ।" एक प्रेम कविता बन गई । कई बार देखा लेकिन उस दिन बन गई । रोज़ आप गुज़रते हैं रास्ते से देखते है चीज़ को तो एकाएक कोई चीज़ आपको पकड़ लेगी । अरे ! मुझे सुनते जाओ । तो आपका हृदय खुला हुआ हो, आपकी आँखें खुली हुई हो तो तमाम चीज़ें ये जो किताब में आई है 'आम के पत्ते' है । इसमें कविताएँ आम के पत्ते पर है, धूप पर है, चाकू पर है, पंखा पर है, मेज़ पर है ऐसी तमाम छोटी-छोटी चीज़ों पर कविताएँ हैं । ये चीज़ें बचपन से रोज़ दिखाई देती है पर इस उम्र में उन्होंने मुझे पकड़ लिया । मेज़, चाकू, चमचा, कुर्सी, इन्होंने मुझे एक नया अर्थ दिया है । कुर्सी जो है वह नेताओं की कुर्सी, कुर्सी बहुत बदनाम चीज़ है । लेकिन देखा की एक कुर्सी हमारे मास्टर की भी है । मास्टर बैठे हैं कुर्सी पर । न्हाई कुर्सी पर बैठाकर सिंगार कर रहा है । कुर्सी के ऐसे और भी आयाम है । चम्मच कहता है कि हमें बदनाम कर दिया है । जब तुम मरते हो तो गंगाजल डालता हूँ तुम्हारे मुँह में । जब तुम खाना खाते हो तब हाथ न जल जाय इसलिए मैं तुम्हारे हाथ में काम करता हूँ। तो इन तमाम चीज़ों ने हमें एक नया संदर्भ दिया है । नया उपयोग दिया है और मैंने इसे निरंतर पकड़ने का प्रयास किया है ।
हमें तो बड़ा अच्छा लगा आप लोग आए और लगा कि मेरे परिवार में वृद्धि हो गयी है । और इससे बड़ी ख़ुशी और क्या हो सकती है कि हमारे परिवार के दो सदस्य और बढ़ गए । आप लोगों की बातचीत से लगा कि कितना प्रेम हमारे प्रति आपके मन में है और आपका ही नहीं बल्कि आपके पूरे प्रांत का प्रेम हमारे प्रति है । मैं कितना समृद्ध हुआ हूँ और इस अवस्था में तो आदमी प्रेम का बड़ा भूखा होता है । उसके ठहरे हुए जीवन में रौनक आ जाती है । लेकिन हम लोगों का सुख यह है कि हम लेखक है और लेखक मिलते रहते हैं । आप जैसे लोग आकर मिलते रहते हैं । यही हमारा सौभाग्य है ।